رَّبِّ اَعُوۡذُ بِکَ مِنۡ ھَمَزٰتِ الشَّیٰطِیۡنِ ۙ وَ اَعُوۡذُ بِکَ رَبِّ اَنۡ یَّحۡضُرُوۡن ؕ۔
بِسۡمِ اللّٰهِ الرَّحۡمٰنِ الرَّحِيۡمِۙ۔
इस्लाम बनाम कुफ्र।
इस्लाम यानी एक अकेले ईश्वर पर विश्वास और कुफ्र यानी ईश्वर के साथ साझीदार बनाना एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू हैं। कोई व्यक्ति या तो आस्तिक होगा या अविश्वासी। बीच में कोई जगह नहीं है। काफिरों में नास्तिक भी शामिल हैं। क्योंकि जो परमेश्वर का ऋणी है, और उसका धन्यवाद नहीं करता, परमेश्वर ऐसे लोगों को पसन्द नहीं करता। हाँ, परमेश्वर जिसको मार्ग दिखाये।
وَ اِنَّاۤ اَوۡ اِيَّاكُمۡ لَعَلٰى هُدًى اَوۡ فِىۡ ضَلٰلٍ مُّبِيۡنٍ ﴿۲۴﴾۔
तथा हम अथवा तुम अवश्य सुपथ पर हैं अथवा खुले कुपथ में हैं। (24)
इस्लाम या अब्राहम (अ० स०) का धर्म ।
मूलतः इस्लाम इब्राहीम (अ०स०) के धर्म का मार्ग है। प्रथम मानव एंवम पैगंबर आदम (अ०स०) से लेकर अंतिम पैगंबर मुहम्मद ﷺ तक इस्लाम अल्लाह का धर्म रहा है। हाँ, इस सफ़र में किताबी क़ौम के कुछ लोगों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ बग़ावत की। जिससे यहूदी, ईसाई, साईबान और अन्य धर्मों का जन्म हुआ। यदि धर्मों की जड़ें खोदी जाएँ तो दो ही धर्म की पहचान होगी। पहला इस्लाम (एक ईश्वर का धर्म), और दूसरा कुफ़्र (शैतान का धर्म, अर्थात एक ईश्वर के साथ अन्य देवताओं को जोड़ना)।
ثُمَّ اَوۡحَيۡنَاۤ اِلَيۡكَ اَنِ اتَّبِعۡ مِلَّةَ اِبۡرٰهِيۡمَ حَنِيۡفًا ؕ وَمَا كَانَ مِنَ الۡمُشۡرِكِيۡنَ ﴿۱۲۳﴾۔
[Q-16:123]
फिर हमने तुम्हारी ओर प्रकाशना की, कि तुम इब्राहीम (अ०स०) के धर्म पर चलो, जो सीधे रास्ते पर थे। और वे मुश्रिकों में से नहीं थे। (123).
قُلۡ صَدَقَ اللّٰهُ ࣞ فَاتَّبِعُوۡا مِلَّةَ اِبۡرٰهِيۡمَ حَنِيۡفًا﯀ وَمَا كَانَ مِنَ الۡمُشۡرِكِيۡنَ ﴿۹۵﴾۔
[Q-03:95]
कहो: (हे मुहम्मद)! ईश्वर ने सत्य कहा है, अतः इब्राहीम (अ०स०) के धर्म पर चलो, जो सदाचारी है। और वह बहुदेववादियों में से नहीं थे। (95)
قُلۡ اِنَّنِىۡ هَدٰٮنِىۡ رَبِّىۡۤ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسۡتَقِيۡمٍۚ دِيۡنًا قِيَمًا مِّلَّةَ اِبۡرٰهِيۡمَ حَنِيۡفًا ۚ وَمَا كَانَ مِنَ الۡمُشۡرِكِيۡنَ ﴿۱۶۱﴾۔
[Q-06:161]
कहो: (हे मुहम्मद)! कि वास्तव में मेरे ईश्वर ने मुझे मार्गदर्शन का मार्ग दिखाया है। एक महान धर्म, इब्राहीम (अ०स०) का धर्म, जो धर्मी थे। और वे मुश्रिकों में से नहीं थे (161)।
وَمَنۡ اَحۡسَنُ دِيۡنًا مِّمَّنۡ اَسۡلَمَ وَجۡهَهٗ لِلّٰهِ وَهُوَ مُحۡسِنٌ وَّاتَّبَعَ مِلَّةَ اِبۡرٰهِيۡمَ حَنِيۡفًا ؕ وَاتَّخَذَ اللّٰهُ اِبۡرٰهِيۡمَ خَلِيۡلًا ﴿۱۲۵﴾۔
[Q-04:125]
और उस से बढ़कर धर्म में कौन बड़ा है, जो परमेश्वर के सामने सिर झुकाए, और भलाई के काम करे, और इब्राहीम (अ०स०) के धर्म की धार्मिकता पर चले। और परमेश्वर ने इब्राहीम (अ०स०) को अपना मित्र बनाया था। (125).
اِنَّ اللّٰهَ اصۡطَفٰۤى اٰدَمَ وَنُوۡحًا وَّاٰلَ اِبۡرٰهِيۡمَ وَاٰلَ عِمۡرٰنَ عَلَى الۡعٰلَمِيۡنَۙ ﴿۳۳﴾ ذُرِّيَّةًۢ بَعۡضُهَا مِنۡۢ بَعۡضٍؕ وَاللّٰهُ سَمِيۡعٌ عَلِيۡمٌۚ ﴿۳۴﴾۔
[Q-03:33-34]
निसंदेह, ईश्वर ने सारी दुनिया में आदम (अ०स०) और नूह (अ०स०) के परिवार और इब्राहीम (अ०स०) और इमरान (अ०स०) के परिवार को चुना। (33). उनमें से कुछ कुछ के बच्चे हैं. और ईश्वर सबकुछ सुनने वाला और जानने वाला है। (34).
अर्थात् सभी विशिष्ट धर्म और उनकी पवित्र पुस्तकें और पैगम्बर, ईश्वर में समाहित हैं।
इस्लाम की शिक्षाएँ।
इस्लाम सिखाता है। कि ईश्वर एक है, उसके सिवा कोई पूजा के योग्य नहीं। वह किसी की संतान नहीं है, न ही उसकी कोई संतान है, जीवन और मृत्यु ईश्वर के हाथ में है। और किसी बड़ी उम्र वाले बूढ़े व्यक्ति की उम्र बढ़ाई नहीं जाती है। और न ही कम उम्र में मरने वाले बच्चे की उम्र घटाई जाती है। बल्कि, मृत्यु अल्लाह द्वारा निर्धारित एक निश्चित समय पर आती है, जो पवित्र पुस्तक लोह ए महफूज़ में अंकित होती है।
1. इस्लाम में केवल एक ईश्वर की पूजा करने का आदेश।
وَاِلٰهُكُمۡ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۚ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ الرَّحۡمٰنُ الرَّحِيۡمُ ﴿۱۶۳﴾۔
[Q-02:163]
और तुम्हारा ख़ुदा एक ही ख़ुदा है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं। जो परम दयालु और कृपालु है। (163)
وَهُوَ اللّٰهُ لَاۤ اِلٰهَ اِلَّا هُوَؕ لَـهُ الۡحَمۡدُ فِى الۡاُوۡلٰى وَالۡاٰخِرَةِ﯀ وَلَـهُ الۡحُكۡمُ وَاِلَيۡهِ تُرۡجَعُوۡنَ ﴿۷۰﴾۔
[Q-28:70]
और वही (एक) ईश्वर है, उसके सिवा कोई ईश्वर नहीं है। उसी के लिए प्रारंभ और अंत में प्रशंसा है। और उसका आदेश सर्वोच्च है। और तुम उसी की ओर लौटाए जाओगे। (70)।
اِنَّمَاۤ اِلٰهُكُمُ اللّٰهُ الَّذِىۡ لَاۤ اِلٰـهَ اِلَّا هُوَؕ وَسِعَ كُلَّ شَىۡءٍ عِلۡمًا ﴿۹۸﴾۔
[Q-20:98]
तुम्हारा पूजा का अधिकारी ईश्वर है, उसके अलावा कोई ईश्वर नहीं है, वह सभी चीजों को अपने ज्ञान में समाहित कर लेता है। (98)
2. ईश्वर की कोई संतान नहीं।
هُوَ اللّٰهُ اَحَدٌ ۚ ﴿۱﴾ اَللّٰهُ الصَّمَدُ ۚ ﴿۲﴾ لَمۡ يَلِدۡ ۙ وَلَمۡ يُوۡلَدۡ ۙ ﴿۳﴾ وَلَمۡ يَكُنۡ لَّهٗ كُفُوًا اَحَدٌ۔ ﴿۴﴾۔
[Q-112:1-4]
वह ईश्वर एक है।(1) ईश्वर शाश्वत है, (जिसका आरंभ या अंत न हो)। (2) न तो वह किसी की संतान है, न ही कोई उसकी संतान है। (3) और उसका कोई साथी भी नहीं है। (4)
اِنَّمَا اللّٰهُ اِلٰـهٌ وَّاحِدٌ ؕ سُبۡحٰنَهٗۤ اَنۡ يَّكُوۡنَ لَهٗ وَلَدٌ ۘ لَهٗ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الۡاَرۡضِؕ وَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيۡلًا ﴿۱۷۱﴾۔
[Q-04:171]
ईश्वर ही एकमात्र ईश्वर है और वह बच्चे पैदा करने से पवित्र है। उसी का है जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है। और ईश्वर संरक्षक के रूप में पर्याप्त है। (171)
وَخَرَقُوۡا لَهٗ بَنِيۡنَ وَبَنٰتٍۢ بِغَيۡرِ عِلۡمٍؕ سُبۡحٰنَهٗ وَتَعٰلٰى عَمَّا يَصِفُوۡنَ ﴿۱۰۰﴾ يَكُوۡنُ لَهٗ وَلَدٌ وَّلَمۡ تَكُنۡ لَّهٗ صَاحِبَةٌ ؕ وَخَلَقَ كُلَّ شَىۡءٍ ۚ وَهُوَ بِكُلِّ شَىۡءٍ عَلِيۡمٌ ﴿۱۰۱﴾۔
[Q-06:100-101]
और उन्होंने बिना किसी ज्ञान के परमेश्वर के लिये बेटे-बेटियाँ बना लीं। वह उससे पवित्र और महान है। जो यह लोग कहते हैं (100)। वह आकाशों और धरती का रचयिता है। जब उसकी पत्नी ही नहीं है तो उसका बेटा कैसे हो सकता है? उसने सब कुछ बनाया है और वह सर्वज्ञ है। (101)
3. मृत्यु का निश्चित समय।
وَمَا كَانَ لِنَفۡسٍ اَنۡ تَمُوۡتَ اِلَّا بِاِذۡنِ اللّٰهِ كِتٰبًا مُّؤَجَّلًا ؕ ﴿۱۴۵﴾۔
[Q-03:145]
और कोई भी आत्मा अल्लाह की अनुमति के बिना नहीं मरती। हाँ, जो निश्चित समय लिखा है। (145)
وَاللّٰهُ خَلَقَكُمۡ مِّنۡ تُرَابٍ ثُمَّ مِنۡ نُّطۡفَةٍ ثُمَّ جَعَلَـكُمۡ اَزۡوَاجًا ؕ وَمَا تَحۡمِلُ مِنۡ اُنۡثٰى وَلَا تَضَعُ اِلَّا بِعِلۡمِه وَمَا يُعَمَّرُ مِنۡ مُّعَمَّرٍ وَّلَا يُنۡقَصُ مِنۡ عُمُرِهٖۤ اِلَّا فِىۡ كِتٰبٍؕ اِنَّ ذٰلِكَ عَلَى اللّٰهِ يَسِيۡرٌ ﴿۱۱﴾۔
[Q-35:11]
और अल्लाह ने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर वीर्य से, फिर जोड़ा बनाया। और उसकी जानकारी के बिना कोई स्त्री गर्भवती नहीं होती, और न उसका प्रसव होता है। और जो उम्र पवित्र किताब (लोह ए महफूज़) में लिखी है। यह न तो बढ़ती है और न ही घटती है। निस्संदेह, यह अल्लाह के लिए आसान है। (11)
4. शरीयत
इस्लाम को मानने वालों के लिए अल्लाह की सुन्नत (एक ईश्वर में विश्वास) और शरीयत (ईश्वर के आदेश) यानी किताब कुरान का पालन करना जरूरी है। सभी पैग़म्बरों और उन पर उतरी किताबों (तोराह, इंजील ज़बूर और अन्य पांडुलिपि) पर विश्वास करो। अपने पैगम्बर और अन्य पैगम्बरों के बीच अंतर न करें।
اِنَّا عَرَضۡنَا الۡاَمَانَةَ عَلَى السَّمٰوٰتِ وَالۡاَرۡضِ وَالۡجِبَالِ فَاَبَيۡنَ اَنۡ يَّحۡمِلۡنَهَا وَاَشۡفَقۡنَ مِنۡهَا وَ حَمَلَهَا الۡاِنۡسَانُؕ اِنَّهٗ كَانَ ظَلُوۡمًا جَهُوۡلًا ۙ ﴿۷۲﴾ لِّيُعَذِّبَ اللّٰهُ الۡمُنٰفِقِيۡنَ وَالۡمُنٰفِقٰتِ وَالۡمُشۡرِكِيۡنَ وَالۡمُشۡرِكٰتِ وَيَتُوۡبَ اللّٰهُ عَلَى الۡمُؤۡمِنِيۡنَ وَالۡمُؤۡمِنٰتِؕ وَكَانَ اللّٰهُ غَفُوۡرًا رَّحِيۡمًا ﴿۷۳﴾۔
[Q-33:72-73]
वास्तव में, हमने आकाशों और धरती और पहाड़ों को अमानत (शरीयत) प्रदान की, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया और इससे डर गए, और मनुष्य ने इसे स्वीकार कर लिया, वह ज़ालिम और अज्ञानी था। (72) (और यह इसलिए) ताकि ख़ुदा मुनाफ़िक़ मर्द और मुनाफ़िक औरत और मुशरिक मर्द और मुशरिक औरत को सज़ा दे, और ख़ुदा ईमान वाले मर्द और ईमान वाली औरत को माफ़ कर दे, और ख़ुदा माफ़ करने वाला, दयालु है (73)।
5. सभी पैग़म्बरों और उन पर उतरी किताबों पर ईमान लाना।
قُوۡلُوۡٓا اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ اُنۡزِلَ اِلَيۡنَا وَمَآ اُنۡزِلَ اِلٰٓى اِبۡرٰهٖمَ وَاِسۡمٰعِيۡلَ وَاِسۡحٰقَ وَيَعۡقُوۡبَ وَ الۡاَسۡبَاطِ وَمَآ اُوۡتِىَ مُوۡسٰى وَعِيۡسٰى وَمَآ اُوۡتِىَ النَّبِيُّوۡنَ مِنۡ رَّبِّهِمۡۚ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ اَحَدٍ مِّنۡهُمۡ وَنَحۡنُ لَهٗ مُسۡلِمُوۡنَ ﴿۱۳۶﴾۔
[Q-02:136&03:84]
मुसलमानो कहो: हम ईश्वर पर ईमान रखते हैं, और जो (किताब) हम पर अवतरित हुई, और जो (ग्रन्थ) इब्राहीम (अ.स.) और इस्माइल (अ.स.) और इसहाक (अ.स.) और याकूब (अ.स.) पर अवतरित हुई। और जो उनके वंशजों पर अवतरित हुई। और जो (किताबें) मूसा (अ.स.) और ईसा (अ.स.) पर अवतरित हुईं। और उन तमाम किताबों पर ईमान लाए जो अन्य पैगम्बरों पर उनके रब की ओर से अवतरित हुई थीं। हम इनमें से किसी भी पैगम्बर के बीच कोई भेद नहीं करते हैं, और हम उस (एक ईश्वर के) प्रति आज्ञाकारी (मुसलमान) हैं। (136).
وَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ كُلٌّ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَمَلٰٓٮِٕكَتِهٖ وَكُتُبِهٖ وَرُسُلِهٖ﯀ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ اَحَدٍ مِّنۡ رُّسُلِهٖ﯀ وَقَالُوۡا سَمِعۡنَا وَاَطَعۡنَا غُفۡرَانَكَ رَبَّنَا وَاِلَيۡكَ الۡمَصِيۡرُ ﴿۲۸۵﴾۔
[Q-02:285]
और हर ईमान वाला जो अल्लाह पर, और उसके फ़रिश्तों पर, और उसकी किताबों पर, और उसके पैगम्बरों पर ईमान रखता है, और कहता है कि हम ईश्वर के सभी पैगम्बरों और अपने पैगम्बर के बीच कोई अंतर नहीं करते। और वे कहते हैं: हमने (आपका आदेश) सुना और स्वीकार कर लिया। हे मेरे प्रभु, हम आपसे क्षमा चाहते हैं। और हमें आपके पास लौटना होगा। (285)
وَالَّذِيۡنَ يُؤۡمِنُوۡنَ بِمَۤا اُنۡزِلَ اِلَيۡكَ وَمَاۤ اُنۡزِلَ مِنۡ قَبۡلِكَۚ وَبِالۡاٰخِرَةِ هُمۡ يُوۡقِنُوۡنَؕ ﴿۴﴾ اُولٰٓٮِٕكَ عَلٰى هُدًى مِّنۡ رَّبِّهِمۡ وَاُولٰٓٮِٕكَ هُمُ الۡمُفۡلِحُوۡنَ ﴿۵﴾۔
[Q-02:04-05]
और जो लोग उस पर ईमान लाए जो तुम्हारी ओर उतारा गया। और जो कुछ तुमसे पहले उतारा गया। और जो आख़िरत पर ईमान लाए। (4) ये वे लोग हैं जो अपने पालनहार द्वारा मार्गदर्शित होते हैं। और यही वे लोग हैं जो समृद्ध होंगे। (5)
6. अंतिम न्याय का दिन।
और अंतिम न्याय के दिन पर विश्वास लाओ और इस बात पर भी कि! ज़मीन पर किए गए हर अच्छे और बुरे काम का हिसाब लिया जाएगा। और देश में अशांति मत फैलाओ।
الَّذِيۡنَ يُؤۡمِنُوۡنَ بِالۡغَيۡبِ وَ يُقِيۡمُوۡنَ الصَّلٰوةَ وَمِمَّا رَزَقۡنٰهُمۡ يُنۡفِقُوۡنَۙ ﴿۳﴾۔
[Q-02:03]
जो लोग परोक्ष पर विश्वास करते हैं और प्रार्थना करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं। (वे सफल लोग हैं)। (3)
يَوۡمَٮِٕذٍ يَّصۡدُرُ النَّاسُ اَشۡتَاتًا ۙ لِّيُرَوۡا اَعۡمَالَهُمۡؕ ﴿۶﴾ فَمَنۡ يَّعۡمَلۡ مِثۡقَالَ ذَرَّةٍ خَيۡرًا يَّرَهٗ ؕ ﴿۷﴾ وَمَنۡ يَّعۡمَلۡ مِثۡقَالَ ذَرَّةٍ شَرًّا يَّرَهٗ ﴿۸﴾۔
[Q-99:6-8]
क़यामत के दिन लोग उनके कार्यों को देखने के लिए तितर-बितर हो जायेंगे। ﴾ 6 ﴾ तो जिसने रत्ती भर भी भलाई की, वह देख लेगा। (7) और जो कोई ज़रा भी बुराई करेगा वह देख लेगा। (8)
لَيۡسَ الۡبِرَّ اَنۡ تُوَلُّوۡا وُجُوۡهَكُمۡ قِبَلَ الۡمَشۡرِقِ وَ الۡمَغۡرِبِ وَلٰـكِنَّ الۡبِرَّ مَنۡ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالۡيَوۡمِ الۡاٰخِرِ وَالۡمَلٰٓٮِٕکَةِ وَالۡكِتٰبِ وَالنَّبِيّٖنَۚ ﴿۱۷۷﴾۔
[Q-02:177]
अच्छाई यह नहीं है कि तुम अपना मुँह पूर्व या पश्चिम की ओर कर लो, बल्कि यह अच्छा है कि तुम ईश्वर और अंतिम दिन और फ़रिश्तों और किताब (कुरान) और पैगम्बरों पर ईमान लाओ। (177).
7. देश में कोई उपद्रव नहीं।
وَلَا تُفۡسِدُوۡا فِى الۡاَرۡضِ بَعۡدَ اِصۡلَاحِهَا وَادۡعُوۡهُ خَوۡفًا وَّطَمَعًا ؕ اِنَّ رَحۡمَتَ اللّٰهِ قَرِيۡبٌ مِّنَ الۡمُحۡسِنِيۡنَ ﴿۵۶﴾۔
[Q-07:56]
और देश में शान्ति स्थापित हो जाने के बाद उपद्रव न करना। भय और आशा के साथ ईश्वर को पुकारो, निस्संदेह ईश्वर की दया भलाई करने वालों के करीब रहती है (56)।
فَاَوۡفُوا الۡكَيۡلَ وَالۡمِيۡزَانَ وَلَا تَبۡخَسُوا النَّاسَ اَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تُفۡسِدُوۡا فِى الۡاَرۡضِ بَعۡدَ اِصۡلَاحِهَا ؕ ذٰ لِكُمۡ خَيۡرٌ لَّـكُمۡ اِنۡ كُنۡتُمۡ مُّؤۡمِنِيۡنَ ۚ ﴿۸۵﴾۔
[Q-07:85]
अतः नाप और तौल को पूरा करो और लोगों की चीज़ों को कम न करो। जब तक शान्ति है, तब तक देश में उपद्रव न फैलाओ। और यह तुम्हारे लिए बेहतर है, यदि तुम ईमानवाले हो (85)।
وَاِذَا قِيۡلَ لَهُمۡ لَا تُفۡسِدُوۡا فِىۡ الۡاَرۡضِۙ قَالُوۡاۤ اِنَّمَا نَحۡنُ مُصۡلِحُوۡنَ ﴿۱۱﴾ اَلَا ۤ اِنَّهُمۡ هُمُ الۡمُفۡسِدُوۡنَ وَلٰـكِنۡ لَّا يَشۡعُرُوۡنَ ﴿۱۲﴾۔
[Q-02:11-12]
और जब उनसे कहा जाता है कि धरती में उपद्रव न मचाओ तो कहते हैं, हम तो मेल करानेवाले हैं। (11) जबकि वे उत्पात मचाने वाले हैं. लेकिन वे यह नहीं जानते. (12)
8. दान करना।
और यह कि तुम अपनी मेहनत की कमाई का एक हिस्सा, जो तुम्हें बहुत प्रिय है, गरीबों, अनाथों, रिश्तेदारों और लोगों की राहत में खर्च करो। ईश्वर को धन्यवाद दो। ईश्वर को धन्यवाद करने का सबसे अच्छा तरीका सजदा यानी प्रार्थना है। यही इस्लाम है। इस्लाम अपनाने वाले लोग मुसलमान कहलाते हैं।
وَاٰتَى الۡمَالَ عَلٰى حُبِّهٖ ذَوِى الۡقُرۡبٰى وَالۡيَتٰمٰى وَالۡمَسٰكِيۡنَ وَابۡنَ السَّبِيۡلِۙ وَالسَّآٮِٕلِيۡنَ وَفِى
الرِّقَابِۚ وَاَقَامَ الصَّلٰوةَ وَاٰتَى الزَّکٰوةَ ۚ وَالۡمُوۡفُوۡنَ بِعَهۡدِهِمۡ اِذَا عٰهَدُوۡا ۚ وَالصّٰبِرِيۡنَ فِى الۡبَاۡسَآءِ وَالضَّرَّآءِ وَحِيۡنَ الۡبَاۡسِؕ اُولٰٓٮِٕكَ الَّذِيۡنَ صَدَقُوۡا ؕ وَاُولٰٓٮِٕكَ هُمُ الۡمُتَّقُوۡنَ ﴿۱۷۷﴾۔
[Q-02:177]
और जो धन तुम्हें प्रिय है उसे खर्च करो। रिश्तेदारों पर, अनाथों पर, गरीबों पर, मुसाफिरों पर, प्रश्नकर्ताओं पर और गर्दनविहीनों को मुक्त कराने की खातिर। और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो। और जब वादा करो तो उसे निभाओ. और कठिनाइयों और युद्ध के समय में धैर्य रखो। ये वो लोग हैं. जो सच्चे हैं. और ये वे हैं, जो पवित्र हैं। (177)।
प्रारंभ से अंत केवल इस्लाम।
وَمَاۤ اَرۡسَلۡنَا مِنۡ قَبۡلِكَ مِنۡ رَّسُوۡلٍ اِلَّا نُوۡحِىۡۤ اِلَيۡهِ اَنَّهٗ لَاۤ اِلٰهَ اِلَّاۤ اَنَا فَاعۡبُدُوۡنِ ﴿۲۵﴾۔
[Q-21:25]
और हमने तुमसे पहले कोई सन्देशवाहक नहीं भेजा जिस पर यह प्रकाश न किया गया हो कि मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं, अतः तुम मेरी इबादत करो। (25).
وَمَنۡ يَّبۡتَغِ غَيۡرَ الۡاِسۡلَامِ دِيۡنًا فَلَنۡ يُّقۡبَلَ مِنۡهُ ۚ وَهُوَ فِى الۡاٰخِرَةِ مِنَ الۡخٰسِرِيۡنَ ﴿۸۵﴾۔
[Q-03:85]
और जो कोई इस्लाम के अलावा किसी और चीज़ को अपना धर्म बनाना चाहता है। तो यह उससे स्वीकार नहीं किया जाएगा. और वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से होगा। (85).
وَلِلّٰهِ مُلۡكُ السَّمٰوٰتِ وَالۡاَرۡضِؕ وَاللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَىۡءٍ قَدِيۡرٌ ﴿۱۸۹﴾۔
[Q-03:189]
और आकाशों और धरती का राज्य अल्लाह का है और अल्लाह हर चीज़ पर अधिकार रखता है।(189)
اَ لۡيَوۡمَ اَكۡمَلۡتُ لَـكُمۡ دِيۡنَكُمۡ وَاَ تۡمَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ نِعۡمَتِىۡ وَرَضِيۡتُ لَـكُمُ الۡاِسۡلَامَ دِيۡنًا ؕ ﴿۳﴾۔
[Q-05:03]
आज के दिन हमने आपके लिए आपका धर्म पूर्ण कर दिया है। और हमने आप पर अपना उपकार पूरा कर लिया है और इस्लाम को आपके धर्म के रूप में चुन लिया है। (3)
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