2. इस्लाम के स्तम्भ।

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رَّبِّ اَعُوۡذُ بِکَ مِنۡ ھَمَزٰتِ الشَّیٰطِیۡنِ ۙ وَ اَعُوۡذُ بِکَ رَبِّ اَنۡ یَّحۡضُرُوۡن ؕ۔

بِسۡمِ اللّٰهِ الرَّحۡمٰنِ الرَّحِيۡمِۙ۔

इस्लाम के स्तम्भ।

कुरान के अनुसार इस्लाम के मूल स्तंभ निम्नलिखित हैं।

  1. शहादह।
  2. प्रार्थना।
  3. जकात।
  4. उपवास।
  5. हज बैतुल्लाह।
  6. अच्छे कर्म करने का कर्तव्य और परलोक का भय।
  7. पैगम्बरों और उन पर अवतरित किताबों तथा फ़रिश्तों पर विश्वास।

1. ला इलाहा इल्ल-ल्लाह की शहादह।

कलिमा तय्यबा (لَاۤ اِلٰهَ اِلَّا اللّٰهُ) यानी खुदा की सुन्नत की शहादत, इस्लाम के स्तम्भ का पहला स्तम्भ है। अगर कोई व्यक्ति तय्यबा के शब्द पर विश्वास नहीं करता है, तो वह इस्लाम में प्रवेश ही नहीं कर सकता। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि वह मानव जगत के किसी भी धर्म में शामिल नहीं हो सकता। क्योंकि इस दुनिया का हर धार्मिक व्यक्ति जानता है कि इस ब्रह्मांड का निर्माता एंवम ईश्वर एक है। अत: बहुदेववादी शैतानी विचार धार के उपासक है।

इसलिए, इस्लाम में प्रवेश कर चुके व्यक्ति और प्रवेश करने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह गवाही दे कि अल्लाह एक है और उसके अलावा कोई ईश्वर नहीं है। और मुहम्मद () की उम्मत के हर शख्स पर और इस उम्मत में दाखिल होने वाले हर नए शख्स पर यह अनिवार्य है कि वह इस बात की गवाही दे कि मुहम्मद () अल्लाह के रसूल हैं। और यह इसलिए है क्योंकि क़ियामत के दिन मुहम्मद () अपनी उम्मत के गवाह होंगे। अल्लाह कहता है।

وَاِلٰهُكُمۡ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ  ۚ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ الرَّحۡمٰنُ الرَّحِيۡمُ‏ ﴿۱۶۳﴾۔

[Q-02:163]

और तुम्हारा पूज्य एक ही पूज्य है, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं, वह अत्यन्त कृपालु, दयावान है। (163)

وَهُوَ اللّٰهُ لَاۤ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ‌ؕ لَـهُ الۡحَمۡدُ فِى الۡاُوۡلٰى وَالۡاٰخِرَةِؗ وَلَـهُ الۡحُكۡمُ وَاِلَيۡهِ تُرۡجَعُوۡنَ‏ ﴿۷۰﴾۔

[Q-28:70]

और वही अल्लाह है, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं, और उसी के लिए आरंभ में भी प्रशंसा है और आख़िरत में भी, और उसी का आदेश है, और उसी की ओर तुम लौटाए जाओगे। 70

قُل هُوَ اللّٰهُ اَحَدٌ‌ ۚ‏ ﴿۱﴾  اَللّٰهُ الصَّمَدُ‌ ۚ‏ ﴿۲﴾  لَمۡ يَلِدۡ ۙ وَلَمۡ يُوۡلَدۡ ۙ‏ ﴿۳﴾  وَلَمۡ يَكُنۡ لَّهٗ كُفُوًا اَحَدٌ‏ ﴿۴﴾۔

[Q-112:1-4]

कहो: वह अल्लाह एक है (1) अल्लाह शाश्वत है, (सदा जीवित रहने वाला) (2) वह किसी की संतान नहीं है, न कोई उसकी संतान है (3) और उसके जैसा कोई नहीं है। (4)

وَيَوۡمَ نَـبۡعَثُ فِىۡ كُلِّ اُمَّةٍ شَهِيۡدًا عَلَيۡهِمۡ مِّنۡ اَنۡفُسِهِمۡ‌ وَجِئۡنَا بِكَ شَهِيۡدًا عَلٰى هٰٓؤُلَاۤءِ ‌ؕ﴿۸۹﴾۔

[Q-16:89]

और जिस दिन हम उनमें से हर क़ौम पर एक गवाह खड़ा करेंगे और आप ﷺ को उनके मुक़ाबले में गवाह बनाकर लाएँगे। (89)

कुरान से कलिमा तैयबा का एक उदाहरण।

अल्लाह तआला ने कुरान में तय्यबा शब्द की मिसाल एक ऐसे पवित्र वृक्ष से दी है, जिसकी जड़ मजबूत है और जिसकी शाखाएं आसमान में हैं। और वह सदैव अपने रब के आदेश से फल लाता है।

اَلَمۡ تَرَ كَيۡفَ ضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا كَلِمَةً طَيِّبَةً كَشَجَرَةٍ طَيِّبَةٍ اَصۡلُهَا ثَابِتٌ وَّفَرۡعُهَا فِى السَّمَآءِۙ‏ ﴿۲۴﴾ تُؤۡتِىۡۤ اُكُلَهَا كُلَّ حِيۡنٍۢ بِاِذۡنِ رَبِّهَا‌﴿۲۵﴾۔

[Q-14:24-25]

क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह ने कलमा तैय्यबा की मिसाल किस तरह बयान की है? मानो वह एक पवित्र वृक्ष है। जिसकी जड़ मज़बूत है और जिसकी शाखाएँ आसमान में हैं। (24) और वह अपने रब के आदेश से सदैव फल देता है। (25)

2. प्रार्थना।

इस्लाम के स्तम्भ का दूसरा स्तम्भ प्रार्थना (नमाज़) है। प्रार्थना (नमाज़) ईश्वर का धन्यवाद करने और उसकी पूजा करने का सबसे अच्छा तरीका है। कुरान में पाँच बार प्रार्थना करने की शिक्षा दी गई है। अल्लाह तआला सभी नमाजों को उनके समय पर अदा करने का आदेश देते हैं। अल्लाह तआला फ़रमाता है कि नमाज़ बंदों को बेहयाई और बुराई से रोकती है।

اِنَّنِىۡۤ اَنَا اللّٰهُ لَاۤ اِلٰهَ اِلَّاۤ اَنَا فَاعۡبُدۡنِىۡ ۙ وَاَقِمِ الصَّلٰوةَ لِذِكۡرِىۡ‏ (۱۴)۔

[Q-20:14]

निस्संदेह, मैं अल्लाह हूं, मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं, अतः मेरी इबादत करो। और मेरी याद के लिए नमाज़ पढ़ो। (14)

قَدۡ اَفۡلَحَ مَنۡ تَزَكّٰىۙ‏ (۱۴)  وَذَكَرَ اسۡمَ رَبِّهٖ فَصَلّٰى ؕ‌ (۱۵)۔

[Q-87:14-15]

वास्तव में, वह सफल है जो पवित्र हो जाता है (14) और अपने खुदा के नाम को याद करता है और फिर नमाज़ अदा करता है। (15).

اِنَّ الصَّلٰوةَ كَانَتۡ عَلَى الۡمُؤۡمِنِيۡنَ كِتٰبًا مَّوۡقُوۡتًا‏ ﴿۱۰۳﴾۔

[Q-04:103]

वास्तव में, ईमानवालों पर अपने नियत समय पर नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। (103).

وَاَقِمِ الصَّلٰوةَ اِنَّ الصَّلٰوةَ ؕ تَنۡهٰى عَنِ الۡفَحۡشَآءِ وَالۡمُنۡكَرِ‌ؕ وَلَذِكۡرُ اللّٰهِ اَكۡبَرُ ؕ (۴۵)۔

[Q-87:29-45]

और नमाज़ से बंधे रहो। इसमें कोई संदेह नहीं कि नमाज़ अनैतिकता और बुरी चीजों से रोकती है। और ईश्वर का स्मरण एक महान (अच्छा कर्म) है। (45).

وَاَقِمِ الصَّلٰوةَ طَرَفَىِ النَّهَارِ وَزُلَـفًا مِّنَ الَّيۡلِ‌ ؕ اِنَّ الۡحَسَنٰتِ يُذۡهِبۡنَ السَّيِّاٰتِ ‌ؕ ذٰ لِكَ ذِكۡرٰى لِلذّٰكِرِيۡنَ ‌ۚ‏ ﴿۱۱۴﴾۔

[Q-11:114]

और दिन के दोनों तरफ और रात के कुछ हिस्से में नमाज़ क़ायम करो। निस्संदेह, अच्छे कर्म बुरे कर्मों को दूर कर देते हैं। यह सलाह चाहने वालों के लिए एक सलाह है। (114).

وَاسۡتَعِيۡنُوۡا بِالصَّبۡرِ وَالصَّلٰوةِ ‌ؕ وَاِنَّهَا لَكَبِيۡرَةٌ اِلَّا عَلَى الۡخٰشِعِيۡنَۙ‏ (۴۵)  الَّذِيۡنَ يَظُنُّوۡنَ اَنَّهُمۡ مُّلٰقُوۡا رَبِّهِمۡ وَاَنَّهُمۡ اِلَيۡهِ رٰجِعُوۡنَ (۴۶)۔

[Q-02:45-46]

और सब्र और नमाज़ से मदद मांगो और बेशक नमाज़ कठिन है, लेकिन उन लोगों के लिए नहीं जो विनम्र हैं। (45) जो लोग यह समझते हैं कि हमें अपने रब से मिलना है और उसी की ओर लौटना है। (46).

3. ज़कात।

इस्लाम के स्तम्भ का तीसरा स्तम्भ ज़कात है। प्रत्येक धनवान व्यक्ति अथार्त वह व्यक्ति जो अपने परिवार के आवश्यक खर्चों को पूरा करने के बाद कुछ नकदी या संपत्ति बचा लेता है, तो उसमें से कुछ हिस्सा अल्लाह की राह में खर्च करना अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में, कमजोर और असहाय लोगों की मदद करना अनिवार्य है। अल्लाह फ़रमाता है कि न तो तुम्हारा खाना मुझ तक पहुँचता है और न ही माल। आपके इरादे और धर्मपरायणता मुझ तक पहुँचते हैं। अल्लाह सर्वशक्तिमान कहते हैं. कि जो कुछ तुम उसकी राह में खर्च करते हो, वह तुम्हें इस दुनिया में उसका दोगुना देता है। और आख़िरत में उसका इनाम बहुत बड़ा है।

اِنَّمَا وَلِيُّكُمُ اللّٰهُ وَرَسُوۡلُهٗ وَالَّذِيۡنَ اٰمَنُوا الَّذِيۡنَ يُقِيۡمُوۡنَ الصَّلٰوةَ وَيُؤۡتُوۡنَ الزَّكٰوةَ وَهُمۡ رَاكِعُوۡنَ‏ (۵۵)۔

[Q-05:55]

तुम्हारे मित्र ईश्वर और उसके पैग़ंबर और वे ईमानवाले हैं जो नमाज़ पढ़ते हैं, दान करते हैं और (खुद के आगे) झुकते हैं। (55).

مَاۤ اُرِيۡدُ مِنۡهُمۡ مِّنۡ رِّزۡقٍ وَّمَاۤ اُرِيۡدُ اَنۡ يُّطۡعِمُوۡنِ‏ ﴿۵۷﴾  اِنَّ اللّٰهَ هُوَ الرَّزَّاقُ ذُو الۡقُوَّةِ الۡمَتِيۡنُ‏ ﴿۵۸﴾۔

[Q-51:57-58]

मैं उनसे जीविका (रोज़ी) नहीं माँगता, न यह चाहता हूँ कि वे मुझे (भोजन) खिलाएँ (57) ईश्वर जीविका (रोज़ी) देने वाला, मज़बूत और शक्तिशाली है। (58).

اِنۡ تُقۡرِضُوا اللّٰهَ قَرۡضًا حَسَنًا يُّضٰعِفۡهُ لَـكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَـكُمۡ‌ؕ وَاللّٰهُ شَكُوۡرٌ حَلِيۡمٌۙ‏ ﴿۱۷﴾۔

[Q-64:17]

यदि आप ईमानदारी और अच्छे इरादों के साथ खुदा को कर्ज़ देते हैं, तो वह आपको दोगुना देगा। और तुम्हारे पाप क्षमा कर देगा। और ईश्वर दयालु और सहनशील है। (17).

مَثَلُ الَّذِيۡنَ يُنۡفِقُوۡنَ اَمۡوَالَهُمۡ فِىۡ سَبِيۡلِ اللّٰهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ اَنۡۢبَتَتۡ سَبۡعَ سَنَابِلَ فِىۡ كُلِّ سُنۡۢبُلَةٍ مِّائَةُ حَبَّةٍ‌ؕ وَاللّٰهُ يُضٰعِفُ لِمَنۡ يَّشَآءُ‌ ؕ وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيۡمٌ‏ ﴿۲۶۱﴾۔

[Q-02:261]

जो लोग अपने माल ख़ुदा की राह में ख़र्च करते हैं उनकी मिसाल उस दाने की तरह है जिसमें से सात गेहूँ की बालें निकलती हैं और हर बाल में सौ-सौ दाने होते हैं और ख़ुदा जिसे चाहता है बढ़ा देता है। वह सर्वज्ञ है। (261).

4. उपवास।

इस्लाम के स्तम्भ का चौथा स्तम्भ रोज़ा (उपवास) है। जिस तरह अल्लाह ताला ने पहले किताबी समुदाय के लोगों पर रोजा फर्ज किया था। इसी तरह उम्मते मुहम्मदिया पर भी रोज़ा फर्ज किया गया है। दरअसल, रोजा रखना एक नेक कर्म है।

रोजे में इंसान सुबह सादिक़ से लेकर शाम तक अपने खुदा से जुड़ा रहता है। और परहेज़गारी के साथ तमाम गुनाहों से बच जाता है। इसके अलावा चिकित्सकीय दृष्टि से भी शरीर में कई लाभकारी परिवर्तन होते हैं।

يٰٓـاَيُّهَا الَّذِيۡنَ اٰمَنُوۡا كُتِبَ عَلَيۡکُمُ الصِّيَامُ کَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِيۡنَ مِنۡ قَبۡلِکُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُوۡنَ ۙ (۱۸۳)  اَيَّامًا مَّعۡدُوۡدٰتٍ ؕ فَمَنۡ كَانَ مِنۡكُمۡ مَّرِيۡضًا اَوۡ عَلٰى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنۡ اَيَّامٍ اُخَرَ‌ؕ وَعَلَى الَّذِيۡنَ يُطِيۡقُوۡنَهٗ فِدۡيَةٌ طَعَامُ مِسۡكِيۡنٍ ؕ فَمَنۡ تَطَوَّعَ خَيۡرًا فَهُوَ خَيۡرٌ لَّهٗ ؕ وَاَنۡ تَصُوۡمُوۡا خَيۡرٌ لَّـکُمۡ اِنۡ كُنۡتُمۡ تَعۡلَمُوۡنَ‏ (۱۸۴)  شَهۡرُ رَمَضَانَ الَّذِىۡٓ اُنۡزِلَ فِيۡهِ الۡقُرۡاٰنُ هُدًى لِّلنَّاسِ وَ بَيِّنٰتٍ مِّنَ الۡهُدٰى وَالۡفُرۡقَانِ ۚ فَمَنۡ شَهِدَ مِنۡكُمُ الشَّهۡرَ فَلۡيَـصُمۡهُ ؕ وَمَنۡ کَانَ مَرِيۡضًا اَوۡ عَلٰى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنۡ اَيَّامٍ اُخَرَؕ يُرِيۡدُ اللّٰهُ بِکُمُ الۡيُسۡرَ وَلَا يُرِيۡدُ بِکُمُ الۡعُسۡرَ  وَلِتُکۡمِلُوا الۡعِدَّةَ وَلِتُکَبِّرُوا اللّٰهَ عَلٰى مَا هَدٰٮكُمۡ وَلَعَلَّکُمۡ تَشۡكُرُوۡنَ‏ (۱۸۵)۔

[Q-02:183-185]

मोमीनो! तुम्हारे लिए रोज़े फ़र्ज़ (अनिवार्य) किये गए है। जैसा कि यह तुमसे पहले लोगों पर अनिवार्य थे, ताकि तुम धर्मी बनो। (183)

ये रोज़े (व्रत) गिनती के कुछ दिन हैं। तो तुम में से जो कोई बीमार हो या सफ़र में हो, तो दूसरे दिनों में रोज़ों की गिनती पूरी कर ले। और जो लोग खर्च करने की ताकत रखते हैं, उन्हें किसी गरीब को खाना खिलाकर फिद्या अदा करना चाहिए। जो व्यक्ति अच्छा करेगा उसके लिए अच्छा ही होगा। और यदि तुम उपवास करो तो यह तुम्हारे लिये उत्तम है, यदि तुम जानते हो। (184).

रमज़ान वह धन्य महीना है जिसमें कुरान लोगों के मार्गदर्शन के लिए प्रकट हुआ था। जिसकी स्पष्ट निशानियाँ, मार्गदर्शन और फ़ुरकान (न्याय) का साधन हैं। अतः तुम में से जो कोई इस महीने को देखे, वह इस का रोज़ा रखे। और यदि कोई बीमार हो या यात्रा पर हो, तो उनकी गिनती दूसरे दिनों में पूरी कर लेना।

अल्लाह तुम्हारे लिए सरलता चाहता है और तुम्हारे लिए कष्ट नहीं चाहता, ताकि तुम गिनती पूरी कर लो और उस अल्लाह का गुणगान (तसबीह) करो और कृतज्ञ (शुक्रगुजार) रहो जिसने तुम्हें मार्ग दिखाया है। (185).

5. हज बैतुल्लाह।

इस्लाम के स्तम्भ का पंचवा स्तम्भ हज बैतुल्लाह है। हर कोई जो अल्लाह के शहर में जाने का खर्च उठा सकता है। उस पर अल्लाह के घर का हज करना अनिवार्य है। अल्लाह फरमाता है कि…

وَلِلّٰهِ عَلَى النَّاسِ حِجُّ الۡبَيۡتِ مَنِ اسۡتَطَاعَ اِلَيۡهِ سَبِيۡلًا ‌ؕ﴿۹۷﴾۔

[Q-03:97]

और अल्लाह की तरफ से लोगों के लिए बैतुल्लाह का हज है, हर उस व्यक्ति के लिए जो इस यात्रा को करने की क्षमता रखता है।

6. धर्मसम्मत कार्य।

इस्लाम के स्तम्भ का छटवा स्तम्भ पुण्य कर्म है। अल्लाह पर ईमान लाने के बाद एक मुसलमान के लिए अच्छे कर्म करना अनिवार्य है। एक अच्छा मुसलमान देश में अशांति पैदा नहीं करता। किसी अन्य व्यक्ति के प्रति द्वेष नहीं रखता। और जब वह लोगों से मिलता है तो उनको अभिवादन (सलाम) करता है।

यदि कोई व्यक्ति एक अल्लाह पर विश्वास करता है, लेकिन नेक कर्मों के साथ अपना जीवन व्यतीत नहीं करता है। इसका मतलब यह है कि वह व्यक्ति सुन्नतुल्लाह को तो मानता है लेकिन शरीयतुल्लाह को नहीं। अर्थात उसका विश्वास सही नहीं है या वह पाखंडी (मुनाफिक) है। जिसके दिल में कुछ, और जुबां पर कुछ और हो। स्वर्ग में प्रवेश के लिए ईमान लाना पर्याप्त नहीं है। अल्लाह कहता है: जो लोग ईमान लाए और अच्छे कर्म किए। वे स्वर्ग के अधिकारी हैं।

وَيَوۡمَ تَقُوۡمُ السَّاعَةُ يَوۡمَٮِٕذٍ يَّتَفَرَّقُوۡنَ‏ ﴿۱۴﴾  فَاَمَّا الَّذِيۡنَ اٰمَنُوۡا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فَهُمۡ فِىۡ رَوۡضَةٍ يُّحۡبَرُوۡنَ‏ ﴿۱۵﴾۔

[Q-30:14-15]

और क़यामत के दिन वे अलग-अलग संप्रदाय बन जायेंगे। (14) तो जो लोग ईमान लाये और अच्छे कर्म किये, वे जन्नत में सुखी होंगे। (15).

مَنۡ عَمِلَ صَالِحًـا مِّنۡ ذَكَرٍ اَوۡ اُنۡثٰى وَهُوَ مُؤۡمِنٌ فَلَـنُحۡيِيَنَّهٗ حَيٰوةً طَيِّبَةً‌ ۚ وَلَـنَجۡزِيَـنَّهُمۡ اَجۡرَهُمۡ بِاَحۡسَنِ مَا كَانُوۡا يَعۡمَلُوۡنَ‏ ﴿۹۷﴾۔

[Q-16:97]

जो कोई अच्छे कर्म करेगा, चाहे वह पुरुष हो या महिला, और वह आस्तिक भी हो, हम उसे (इस दुनिया में) शुद्ध और शांतिपूर्ण जीवन के साथ जीवित रखेंगे और (परलोक में) उसे उसके कर्मों का बड़ा इनाम देंगे। (97).

وَاِذَا حُيِّيۡتُمۡ بِتَحِيَّةٍ فَحَيُّوۡا بِاَحۡسَنَ مِنۡهَاۤ اَوۡ رُدُّوۡهَا‌ ؕ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلٰى كُلِّ شَىۡءٍ حَسِيۡبًا‏ ﴿۸۶﴾۔

[Q-04:86]

और जब आपको सलाम किया जाए तो आप उससे बेहतर जवाब दें, या उन्हें वही शब्द, जवाब में दें। निस्संदेह, अल्लाह हर चीज़ का हिसाब लेता है। (86).

وَعِبَادُ الرَّحۡمٰنِ الَّذِيۡنَ يَمۡشُوۡنَ عَلَى الۡاَرۡضِ هَوۡنًا وَّاِذَا خَاطَبَهُمُ الۡجٰهِلُوۡنَ قَالُوۡا سَلٰمًا‏ ﴿۶۳﴾۔

[Q-25:63]

और ख़ुदा के बंदे वो हैं जो ज़मीन पर धीरे-धीरे चलते हैं, और जब अज्ञानी लोग उनसे (अज्ञानतापूर्वक) बात करते हैं, तो सलाम कहते हैं (63)।

7. पैग़म्बरों और उन पर उतरी किताबों और फ़रिश्तों पर ईमान लाना।

इस्लाम के स्तम्भ का सातवाँ स्तम्भ पैगंबरों और उन पर उतरी किताबों, फ़रिश्तों और आख़िरत के दिन पर विश्वास करना है। मेरा रब कहता है! कि आस्तिक (मोमिन) वह है जो एक ईश्वर में विश्वास करता है। और विश्वास करता है कि आख़िरत के दिन उसे अपने हर कृत्य का उत्तर देना होगा। और वह स्वर्गदूतों (फरिश्तों) और ईश्वर द्वारा प्रकट की गई सभी पुस्तकों पर विश्वास करता है कि वे सभी ईश्वर की ओर से हैं। और वह सभी सच्चे पैग़ंबरों में विश्वास करता है कि वे ईश्वर द्वारा चुने गए महान लोग हैं, जो हमारे लिए ईश्वर की आवाज है। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों के लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं!

لَيۡسَ الۡبِرَّ اَنۡ تُوَلُّوۡا وُجُوۡهَكُمۡ قِبَلَ الۡمَشۡرِقِ وَ الۡمَغۡرِبِ وَلٰـكِنَّ الۡبِرَّ مَنۡ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالۡيَوۡمِ الۡاٰخِرِ وَالۡمَلٰٓٮِٕکَةِ وَالۡكِتٰبِ وَالنَّبِيّٖنَ‌ۚ ﴿۱۷۷﴾۔

[Q-02:177]

अच्छाई केवल यह नहीं है कि आप पूर्व या पश्चिम की ओर मुंह करते हैं (उन्हें क़िबला मानते हुए), बल्कि अच्छाई यह है कि लोग ईश्वर पर, अंतिम दिन पर, स्वर्गदूतों पर, (ईश्वर की) किताब पर, और पैगम्बरों पर विश्वास करें। (177).

وَالَّذِيۡنَ يُؤۡمِنُوۡنَ بِمَۤا اُنۡزِلَ اِلَيۡكَ وَمَاۤ اُنۡزِلَ مِنۡ قَبۡلِكَۚ وَبِالۡاٰخِرَةِ هُمۡ يُوۡقِنُوۡنَؕ‏ ﴿۴﴾  اُولٰٓٮِٕكَ عَلٰى هُدًى مِّنۡ رَّبِّهِمۡ‌ وَاُولٰٓٮِٕكَ هُمُ الۡمُفۡلِحُوۡنَ‏ ﴿۵﴾۔

[Q-02:4-5]

और जो लोग उस पर ईमान लाते हैं जो आप पर उतारा गया (हे मुहम्मद ﷺ), और जो कुछ आपसे पहले उतारा गया, और आख़िरत पर ईमान लाए। (4) ये वे लोग हैं जो अपने रब द्वारा हिदायत (मार्गदर्शन) पर हैं। और यही लोग कामयाब हैं। (5)

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